सात पुत्रों की हत्या

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कुछ महा बाद महारानी गंगा ने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र-जन्म की सूचना पाकर महाराज शांतनु खुशी से झूम उठे और खबर लाने वाली दासी को पुरस्कार स्वरूप अपने गले की कीमती माला देकर गंगा के महल की ओर दौड़ पड़े। मगर यह देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि महारानी नवजात शिशु को गोद में उठाए गंगा नदी की ओर जा रही हैं। उन्होंने कुछ पूछना चाहा, किन्तु तभी उन्हें गंगा की शर्त याद आ गई और खामोश होकर वे महारानी गंगा के पीछे चल दिए।

तट पर जाकर गंगा ठिठककर मुड़ी, फिर उनकी ओर देखकर धीमे से मुस्कराई। उसके बाद उसने अपने पुत्र को नदी में बहा दिया। यह देखकर महाराज शांतनु को धक्का-सा पहुंचा। रानी गंगा मुस्कराती हुई वापस लौट पड़ी। महाराज शांतनु आंखें फाड़े उसे देखते रहे, मगर वचन में बंधे होने के कारण बोले कुछ नहीं।
कुछ दिन महाराज को पुन: रानी गंगा के गर्भवती होने की सूचना मिली तो वे पुत्र के सदमे को भूल गए और मन कामना लगे कि इस बार गंगा अपने पहले भचयानक कृत्य को नहीं दोहराएगी और शीघ्र ही उनका पुत्र उनकी गोद में खेलेगा।
मगर उनकी यह कामना पूर्ण न हो सकी। पुत्र के जन्म की सूचना पाकर वे फिर गंगा के महल की ओर दौड़े तो फिर से गंगा को नदी के तट की ओर जाते देखकर सन्न रह गए। वे पागलों की तरह उसके पीछे लपके, मगर चाहकर भी उसे रोक न सके। गंगा ने इस बार भी तट पर जाकर पुत्र को नदी की गोद में डाल दिया।
महाराज शांतनु का कलेजा चाक-चाक हो गया। उनकी आँखों में क्रोध और पीड़ा के आंसू साथ-साथ दिखाई देने लगे, लेकिन वचन में बंधे होने के कारण वे कह ही क्या सकते थे।
और इसी प्रकार रानी ने महाराज शांतनु के एक-एक कर सात पुत्रों की हत्या कर दी।
राजा देखते और खून के आंसू रोते। उनकी पीड़ा को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं मिलते। वे स्वयं को धिक्कारते, ‘कैसा राजा है तू ? एक स्त्री तेरी आंखों के सामने तेरे पुत्रों की हत्या करती है और तू मूकदर्शक बना देखता रहता है। क्या यह न्याय है ? धिक्कार है तुझ पर।’ 
अब महाराज शांतनु का सब्र जवाब दे गया। उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि अपने आठवें पुत्र की हत्या वे इस प्रकार नहीं होने देंगे।
कुछ समय पश्चात रानी गंगा ने उनके आठवें पुत्र को जन्म दिया और पहले की भांति उसे लेकर गंगा तट की ओर चल दी। इस बार महाराज शांतनु घात लगाए बैठे थे। वे रानी के पीछे-पीछे तट की ओर चल दिए। फिर रानी गंगा ने ज्यों ही पुत्र को जल में बहाने के लिए हाथ आगे बढ़ाए, त्यों ही महाराज शांतनु गरजकर बोले, ‘‘बस, बस बहुत हुआ। हाथ रोक लो गंगा। क्या तुम जानती हो कि यह तुम मेरे आठवें पुत्र की हत्या करने की चेष्टा कर रही हो ? आखिर तुम चाहती क्या हो ? क्या तुम यह चाहती हो कि मेरा वंश समाप्त हो जाए और इस राज्य को कोई उत्तराधिकारी न मिले ?’’
महाराज शांतनु की गर्जना सुनकर रानी गंगा ने हाथ पीछे खींच लिए और पलटकर बोली, ‘‘आपने मुझे टोककर अपना वचन भंग कर दिया है राजन, इसलिए अब मैं आपके पास नहीं रह सकती, किन्तु जाने से पहले मैं आपको अपने कृत्य का रहस्य अवश्य बताऊंगी। राजन ! मैं स्वर्ग की गंगा हूं। एक बार आठ वसुओं से अप्रसन्न होकर महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें शाप दे दिया कि तुम पृथ्वी पर जाकर सांसारिक कष्ट भोगो।